Friday, February 6, 2015

यादों के आँगन में

पुराने मकानों को धराशायी कर वहाँ नई इमारतें खड़ी करना आजकल आम बात है. इसीसे जुड़ा एक सुन्दर लघुलेख मैंने पिछले दिनों अंग्रेज़ी में पढ़ा. बहुत ही तरल और हृदयस्पर्शी! न्यू इण्डियन एक्सप्रेस में २८ सितम्बर, २०११ को प्रकाशित रवि शंकर की यह रचना चंद शब्दों में अपनी बात कहती है. यह देखने के लिए कि क्या हिन्दी में भी वह बात बन पाती है, मैंने उसका तर्जुमा हिन्दी में किया है. मूल लेख की लिंक भी साथ है. पढ़ें और बताएँ!

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अतीत की यादें किसी पुराने रिकॉर्ड की तरह होती हैं, जिसे छोटे बच्चों के कपड़ों या पुराने प्रेमपत्रों की तरह घर के कबाड़ख़ाने में सहेज कर रखा जाता है. उस रिकॉर्ड को बजाओ तो पता चलता है कि उसमें कई खरोंचें आ चुकी हैं और आवाज़ बार-बार टूट रही है; वह आवाज़ दिल को कचोटती है. लेकिन मन में गीत की वह धुन अब भी अच्छी तरह से बजती है...एक लम्बा अरसा गुज़र जाने के बावजूद!

अपने बचपन के घर में लौटकर उसे कुछ अजीब-सा लगा, जैसे वह एक परिचित अजनबी हो. वह घर जल्द ही बिकनेवाला था. पीली पड़ चुकी दीवारों पर आँगन के पेड़ की छाया ऐसे दिख रही थी जैसे किसी दैत्य के हाथ हों, बचपन की रातों में हिलते हुए वह हाथ बहुत डरावने लगते थे. फिर वह उन इबारतों को खोजने लगा जो बचपन में उन्होंने गुप्त जगहों पर चोरी-छिपे लिखी थीं. शायद बाद में पुताई करनेवालों की नज़रों से वे बच गई हों, क्योंकि उन जगहों तक वही पहुँच सकते थे जिन्हें उनके बारे में जानकारी हो. वह एक छोटी लड़की की धुँधली हो चुकी तस्वीर उठाने के लिए नीचे झुका. शायद साथ ही पड़ी अस्त-व्यस्त पन्नों वाली अभ्यास-पुस्तिका में से यह तस्वीर नीचे गिर पड़ी थी. एक मुस्कुराते हुए चेहरे के दोनों तरफ लाल फीते के फूलों से सजी दो चोटियाँ, काजल से गहराई आँखें जो धूप की वजह से बंद हो रही थीं; एक पल के लिए हवा का झोंका कहीं से चमेली के फूलों की खुशबू लेकर आया और यादों के खज़ाने में से हँसी की आवाज़ गूँज उठी.

वह खाली कमरों में चहलकदमी करने लगा. जहाँ कभी चित्र टँगे होते थे, वहाँ अब ख़ाली चौकोर थे. छत में बड़े-बड़े छेद थे जिनमें से दिखनेवाले आकाश को छत की बल्लियाँ चिढ़ा रही थीं. चटके हुए फर्श पर फैले कूड़े के बीच पड़े चिड़ी के इक्के पर उसकी नज़र पड़ी. वह ऐसे मुस्कुराया जैसे किसीने कई बार सुना हुआ लतीफ़ा दोहराया हो. लतीफ़ा तो अब मजेदार नहीं रहा, महज उसे सुनाए जाने की याद से चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई. इसी घर के बरामदे में दोस्तों के साथ ताश खेलते हुए सुना लतीफ़ा. अब तो उन दोस्तों की कोई ख़बर ही नहीं है.

अनवर हुसैन की शृंखला "नॉस्टेलजिया" से साभार  

लकड़ी के जिन खम्भों पर ढलाऊँ छत टिकी हुई है, वह जल्द ही उखड़ जाएँगे. उसने गहरे रंग की उस लकड़ी को छुआ. उसकी उँगलियों ने वहाँ उसके पूर्वजों के स्पर्श को महसूस किया. मगन होकर नाचनेवाले फ़कीर की तरह अपनी बाँहें आकाश में फैलाकर सूरज ढल रहा था. उसने मलाबार का वह सूर्यास्त देखा, जहाँ कई-कई रंग बिखर रहे थे, ठीक उसके गीत के सुरों की तरह. उसे लगा उसने घर के अन्दर से अपनी माँ की पुकार सुनी. माँ के हाथों की बनी कॉफ़ी की विशिष्ट तेज़ सुगंध भी उस तक पहुँची. उसने एक झटके के साथ मुड़ कर पीछे देखा, लेकिन घर में कोई नहीं था.

बगीचे में पौधे बेतरतीब-से बढ़े हुए थे. आँगन में कई दिनों से झाड़ू नहीं लगी थी और यहाँ-वहाँ कूड़ा फैला हुआ था. लेकिन वहीं पर तुलसी वृन्दावन ऐसे खड़ा था जैसे इस बीच इतने वर्षों का अंतराल गुज़रा ही न हो. सफ़ेदी किया हुआ ईंटों का चौकोर चबूतरा, जिसमें दीया रखने के लिए छोटे-छोटे आले बने हुए थे ताकि दीये को हवा न लगे. पौधा हरा-भरा था. उसके पत्तों की भीनी खुशबू उस शाम को महका रही थी. उसने तुलसी के एक पत्ते को अपनी उँगलियों के बीच दबाया. उसके सुगन्धित स्पर्श से उसे सुकून मिला. जब उसने देखा कि पौधे के नीचे की मिट्टी नम है, तो उसे बहुत अचरज हुआ. पिछले कई दिनों से बारिश नहीं हुई थी. उसने नीचे झुककर आले की ओर देखा तो वहाँ रखा मिट्टी का एक दीया उसे दिखा. उस दीये में तेल के धब्बे थे. किसीने यह दीया पिछले दिनों जलाया था.

वह मुस्कुराया. उसकी जेब में रखा फ़ोन बज उठा. घर के खरीदारों की तरफ़ से उनके एजेंट का फ़ोन था. शायद पता करना चाहता था कि वह कितनी जल्दी घर के कागज़ात पर दस्तख़त कर सकते हैं. उसने फ़ोन नहीं उठाया.

मूल अंग्रेज़ी रचना: रवि शंकर , न्यू  इण्डियन एक्सप्रेस, २८ सितम्बर २०११